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राजेंद्र चंद्रकांत राय

हिंदी भाशा के इक्कीसवीं सदी के आरंभ में चर्चा में आये कथाकार राजेंद्र चंद्रकांत राय का जन्म 5 नवंबर, 1953 को जबलपुर मध्यप्रदेष में हुआ। उन्होंने हिंदी साहित्य के अध्यापन में जीवन का बड़़ा हिस्सा बिताया और अब स्वतंत्र रूप से लेखन करते हैं। उन्होंने रानी दुर्गावती वि वि से हिंदी साहित्य में एम ए, बी-एड. तथा नेट की डिग्रियां हासिल कीं।

वे ऐसे पहले कहानीकार हैं, जिन्होंने अपनी अधिकतर कहानियों में पर्यावरण के संकटों को गहराई के साथ प्रस्तुत किया। उनकी कहानियों में पषु-पक्षियों को विषेश महत्व मिला है। अक्सर वे मनुश्य से उसकी भाशा में बात करने लगते हैं और उसके पर्यावरण विरोधी आचरण पर सवाल भी उठाते हैं। उनकी कहानियां मनोरंजन मात्र के लिये लिखी गयीं कहानियां नहीं हैं, बल्कि वे समकालीन मनुश्य समाज के सवालों से टकराने का जोखम उठाती हुई लड़ाकू कहानियां हैं। वे कथावस्तु और पात्रों को अपने आसपास की जिंदगी से उठाते हैं और उनके जुझारुपन को रेखांकित करते हैं। एक खास तरह की भाशा षैली उनकी विषेशता है।

कहानियों के रोचक प्रसंग - ‘हंस’ में प्रकाषित चर्चित कहानी ‘पौरुश’ पर विख्यात समालोचक बटरोही ने नवभारत टाइम्स में लेख लिखकर विवाद भी खड़ा किया था। जिसका उत्तर लेखक ने और कथाकार राजेंद्र राव ने पत्रिका‘वर्तमान साहित्य’ में अपने स्तंभ ‘हाल मुरीदों का कहना है’ में जबरदस्त तरीके से दिया था। ‘नक्सलिये’ कहानी पर बिहार के वन विभाग के अफसरों ने फोन करके चंद्रकांत जी को धमकाया था। ‘अच्छा तो...’ कहानी पर देष के कोने- कोने से लगभग दो सौ फोन आये थे। दिल्ली की एक महिला तो फोन पर लगातार रोती ही रहीं और कहा कि वे बात करने के लिये अगली बार फोन करेंगी। असल में कहानी में वर्णित घटना उनके परिचित परिवार में भी कभी घटित हुई थी। ‘पाइपर माउस’ कहानी के लिये चंद्रकांत जी ने कई महीनों तक चूहों पर अध्ययन किया था। वे अपनी कहानियों का भावपूर्ण विधि से वाचन करते हैं। किस्सागोई उनका अंदाज है।

QUOTES

  • संसद और सरकारों ने दिल्ली में बैठकर जो इबारतें लिखीं, वे यहाँ, इधर गाँवों तक आयी ही नहीं...। उनकी सियाही वहीं सूख गयी...। वहाँ नीतियाँ बनीं, यहाँ तोड़ी गयीं...। वहाँ कानून बने, यहाँ उनके खिलाफ काम किये गये...। वहाँ समानता और समाजवाद का दम भरा गया..., यहाँ आदिवासी की लंगोटी खींच ली गयी...।

    - जयहिंद कहानी से

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